8 मार्च 2013



काव्य संकलन "दिसंबर का महीना मुझे आखिरी नहीं लगता"(बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -निर्मला गर्ग
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निर्मला गर्ग की कविताओं में संतुलन है !कभी बोलता हुआ ,कभी खामोश ! कवयित्री भावुकता में एक साफ सुबह को भी अंकुरित अनाज का दर्जा देती है !ये सोचकर कि वो अंकुरित अनाज किसी का पेट भरने की नई इबारत लिखेगा और वो सुबह किसी उदास आदमी को सुकून देगी !
कच्ची नींद के स्वप्न का जिक्र है ! ख़्वाब कच्ची नींद के हों या पक्की नींद के !वे आपका कहना नहीं मानते !वे किसी की भी नहीं सुनते !
कवयित्री पुरुस्कारों की पड़ताल अच्छे तरीके से करती हैं !वे पुरुस्कारों की धूल पर चमक देख लेती हैं ! कविता की जरूरत महसूस करते हुए कहती हैं कि दिन अच्छे हों या बुरे ,कविता की जरूरती हमेशा रहेगी !बुरे दिनों में तो और भी जरूरी !
रहस्य और स्वप्न के बीच कवयित्री खुद को निर्वाक खड़ा हुआ पाती हैं !उसके पास शब्द नहीं हैं !वह समझ नहीं पा रही कि रहस्य के बीच स्वप्न है या स्वप्न के बीच रहस्य !
किताबों के भीतर और बाहर ,दोनों तरफ बारिश हो रही है !पाठक को बारिश के महत्व और आनंद का नहीं पता शायद !कवयित्री है कि बारिश में निरंतर भीग रही है !
कवयित्री मानती हैं कि सभ्यताओं की नींव शोषण पर टिकी होती है !हर सफ़ेद के पीछे काला है !हर खुशी के पीछे अवसाद !हर ज़िंदगी के पीछे एक मौत !
कवयित्री पड़ोसी देश के खेत देखना चाहती है !क्या वहाँ की मिट्टी यहाँ जैसी है !क्या वहाँ का किसान यहाँ जैसा है !क्या वहाँ का पसीना यहाँ जैसा है ! इन सब की कल्पना कवयित्री ,तट पर खड़े जहाज देखकर ही कर लेती है !
दिसंबर का महीना कवयित्री को प्रिय है !वह इसे आखिरी महीना नहीं मानती !क्योंकि इस महीने के पास ,सभी महीनों का कुछ ना कुछ सामान पड़ा है !कोई महीना ख़्वाब छौड़ गया है !कोई हकीकत !कोई रेत के साथ बारिश ! कोई पैरों के साथ पंख ! कोई आँखों के साथ आँसू ! कोई दोस्त ! कोई दोस्ती का ख़्वाब !
कवयित्री एक रात के भीतर कई रातें देखती है ! एक ख़्वाब के बीच कई ख़्वाब ! कई बार ख़्वाब गडमगड हो जाते हैं !पता ही नहीं चलता कि मेरे वाला ख़्वाब कौनसा है और दिलबर वाला कौनसा ! कौनसा ख़्वाब मेरी नींद वाला है और कौनसा दिलबर की नींद वाला ! सारे ख़्वाब धमाचौकड़ी कर रहे हैं ! इस सबके बावजूद कवयित्री नाव लेकर ,नदी में जाना चाहती है ! ख्वाबों को चप्पू बनाकर !
निर्मला गर्ग की कुछ कविताएं जैसे साफ सुबह, अभी जरूरी होगी कविता ,थोड़ी सी नमी ,कवि उधड़ता चला गया है ,तुम लोग किस दिशा से आए हो ,रात ,शिल्प के मजबूत पल से होकर पाठक तक पहुँचती हैं !शेष कविताओं पर कथानक के हावी होने का भ्रम होता है ! कभी कभी लगता है जैसे वे कविताएं शिल्प के पेंटून पल से चलकर आ रही हों ! कवयित्री ने प्रत्येक द्रश्य को बारीकी से देखा है ! मानो पाठक के पास पहुँचना हर हाल में जरूरी हो ! कवयित्री श्रौत तक अप्रौच करती हैं !चाय से नहीं चाय के पौधे से बात करती हैं ! भावुकता सकारात्मक लगती है !
कुल जमा काव्य संग्रह अच्छा है !

संग्रह की दो पंक्तियाँ
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एक पौधे का हाथ पकड़ कर कहती हूँ
मेरे सुबह तुमसे शुरू होती है
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--सीमांत सोहल
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