26 मार्च 2012

समीक्षा


पुस्तक" स्त्री होकर सवाल करती है "(बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -कविता वाचक्नवी
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कविता वाचक्नवी तीन अच्छी कविताओं के साथ उपस्थित हैं !कविता की औरत अपने हाथ में एक दर्पण लिए मौजूद है !उस दर्पण में औरतों की ही तस्वीरें उभरकर आती हैं !
औरतें कभी पूरी रात नींद नहीं सोतीं !इसके बावजूद उनकी आँखें खूबसूरत दिखती हैं !हालांकि कुछ पाठक ऐसा सोच सकते हैं कि औरतों की वजह से ही मर्दों की नींद पूरी नहीं होती !खैर ,उनकी चीख़ों चिल्लाहटों से भरे चेहरे मुसकुराते हुए दिखते हैं !उनकी सूराहीदार गर्दन पर लाल पीले हरे निशान खूबसूरत उभरते दिखते हैं !टूटे पुल के दोनों ओर औरतें उसे पार करने की उम्मीद में खड़ी हैं !तूफान ज़ोरों पर है !जमीन धंस रही है !पहाड़ दरक रहे हैं !वक्त की बाढ़ सब डुबाने वाली है !लेकिन कवयित्री के पास दर्पण सुरक्षित है और शायद रहेगा भी !
दूसरी रचना में औरतें अपनी ही परछाईओ से लदी हैं !या यूं कहें कि अपनी ही परछाईओ से त्रस्त हैं और समाज और समय से पूछ रही है कि आखिर हम कितनी परछाईया ,कितनी देर तक लादें ? वे बताना चाहती हैं कि अंधेरे में परछाईया कैसे बनती हैं और सूरज से परछाई कैसे डरती है !वे ये भी कहती हैं कि हर त्रिशूल पर हम आखिर कब तक डमरू बांधती रहेंगी !यानि हर संहारक वस्तु की हम कब तक अपनी मोहब्बत से बचाव करती रहेंगी !यानि कब तक संहारक त्रिशूल पर ,मोहब्बत का डमरू बांधती रहेंगी ?दुनिया में बेहिसाब त्रिशूल है लेकिन उनके अनुपात में इतने डमरू कहाँ हैं !त्रिशूल बेइंतेहा चलते हैं लेकिन उनके मुक़ाबले मोहब्बत के डमरू कितने बजते हैं !कविता कहना चाहती है कि औरतों की बदौलत ही त्रिशूलों पर मोहब्बतों के डमरू बांधते हैं !कब त्रिशूल कम होंगे ?कब डमरूओं की संख्या बढ़ेगी ?औरतों का ये रोल कभी खत्म होगा ?कब डमरू अपने आप बजा करेंगे !कब त्रिशूल घरों के भीतर रहेंगे ?
तीसरी कविता में औरत दर्पण को नहीं दर्पण औरत को देख रहा है !औरत में कोई इच्छा नहीं बची है कि वो प्रेम पत्रों को सहेजे, जो हवा के पंखों पर सवार हैं और जिन पर शब्दों के चुंबन दर्ज हैं !
पन्ना -पन्ना बिखरा पड़ा है पर वो औरत पढ़ना नहीं चाहती !आकाश है पर वो उड़ना नहीं चाहती !नदियां है पर तैरना नहीं चाहती !जीने के अवसर हैं पर जीना नहीं चाहती !ये सब देख रहा है ,एक दर्पण ,एक औरत को !सब कुछ उपलब्ध है फिर भी कुछ उपलब्ध नहीं है !विधाता ये देखकर भौचंक है ,स्तब्ध है !
कविता वाचक्नवी की तीनों कविताएं लगभग लय में हैं !तीनों की खूबसूरती में काफी फर्क है !तीनों ही अपने एक स्टेंजा में खत्म होती हैं !पाठक को भटकने की निर्मूल आशंका हो जाती है !अच्छे बिम्ब उभरते हैं !कविताएं पर्याप्त कलात्मक पुट लिए हुए हैं !
कविता की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ
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उड़ने को आकाश बड़ा है
तैरने को नदियां ही नदियां हैं
जीने के अवसर ही अवसर ,
नर्तन को धरती ही धरती
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